शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

कल वो मिला जिसकी नुक्कड़ पर चाय की दुकान है
चेहरा देख कर लगा वो शख्स बेहद परेशान है

मुह लटकाए था सो मैंने पूछा , घर से आ गए क्या ?
घर की बात मत करो चाय पीयो

हाल चाल पूछ कर मेरा मन मत दुखाओ
मेरी जिद पर वो बोला, घर की हालत ठीक नहीं है
खेतों में कुछ नहीं हुआ है, ऊपर से ये महगाई डायन

घर के चूल्हे पर रखा पतीला खाली पड़ा है
बच्चों के जेहन में रोटियों का सवाल खड़ा है

बीवी खाली पतीली में सारी रात पत्थर उबालती है
बच्चे खाने के इंतज़ार में फ़रेब खाकर सो जाते हैं

१५ दिन की भूख के बाद कालू कुत्ते के प्राण निकल चुके हैं
भूखे समाजवादी उसका गोश्त चट कर चुके हैं

बाबूजी का पेट समाजवाद की भेट चढ़ चुका है
पेट-पीठ की सिकुड़ी हुई चमड़ी समाजवाद-मार्क्सवाद का नारा लगा रही है
बच्चों के भूखे पेट पर एक खुनी पंजे का निशान है

घर के चूहे, छिपकिलीयां, तिलचट्टे, भी साथ छोड़ गए हैं
नए ठिकानो और रोटी की तलाश में घर से निकल गए हैं

मैं भी घरवालों को दिलाशा देकर लौट आया हूँ
घर को सन्नाटे और घरवालों को भूख के हवाले कर आया हूँ